بـوی بهشت آید از نسیـم خـوش قم |
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شهـر قــم و اهـل قــم سـلام علیکم |
خنـده خـورشید اجـرتان که گشودید |
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در حـــرم اهـلبیـت، لـب بـه تبسـم |
طـور، قـم است و مـزار دختـر موسی |
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در حـــرمش بــا خـدا کنیـد تکلــم |
داده شمـا را سـلام حضـرت صــادق |
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بـرده بـه تمجیـد، نـام اهـل قم و قم |
قـم حـرم یــازده امـام همــام است |
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نـی عجـب ار گشتـه قبلـۀ دل مـردم |
علم ز قــم نـور داده بـر همـه عــالم |
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خلـق از ایــن شهــر یــافتنـد تعلـم |
قـم حـرم فاطمه است، فـاطمه یعنی |
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دختـــر والا مـقـــام حجـت هفتـم |
فـاطمـه یعنـی یگـانـه ثــانی زینـب |
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شمسۀ عصمت که هست نجمه مرا ام |
بـانوی خلقـت کـه خلق بهـر گـدایی |
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بـــر در بیـت الـولاش بـرده تهــاجم |
خیـل ملک بـا وضو به قم شده راهی |
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تــا کــه بـه خـاک درش کنند تیمـم |
بـا قـدم آن گـل بـهشت مـدینه |
قم شده ممزوج با سرشت مدینه |
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قـم متلاطـم ز دسـت رفتـه قـرارش |
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شـد عــوض گل پـرِ فرشته نثـارش |
خلق به کف، دل گرفتهاند عوض گـل |
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تا کـه فتـد فاطمه بـه شهـر گذارش |
بـا قــدمش روضــۀ مقــدسۀ قــم |
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بــوی گل آید برون زهـر سـر خارش |
نـاقــۀ او چــون بـراق احمد مـرسل |
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فاطمه مـانند فـاطمه است سـوارش |
سعـد کــه بـد پیــر فقــه آل محمد |
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پای برهنه، شده است غـاشیه دارش |
بــا قــدم او مدینـــه الشـــرفِ قم |
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بــوی رضــا میدمـد ز لیـل و نهارش |
مـردم قم دور محملـش همـه گشتند |
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همچو ملک جمع، در یمین و یسارش |
اهل قم این فاطمه است کآمده در قم |
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فاطمـــههاینــد محـو عـز و وقارش |
زینـب کبــرا مجـــاست تـا که ببیند |
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نـاقـۀ او روی دوش کیـست مهـارش |
فخــر زنــان بـهشـت آمــده در قـم |
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جـای گـرفتند اهـل قـم بـه جـوارش |
تا که به قم شد گشوده، دامن فیضش |
فیضیه شد خوشهچین خرمن فیضش |
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ای حــرم یــازده ولــی، حــرم تـو |
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کعبـۀ قـم کعبـه گشته از قـدم تو |
غیـر امـامـان شیعه هر چه بگوینـد |
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مدح همه خلـق عـالم است کم تو |
بس که دهی بوی عطر فاطمه، انگار |
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فـاطمه گردیـده دفــن در حرم تو |
مـردم قـم نه، تمـام خلـق، فـدایت |
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قـم نــه، جهان زیـر سایـۀ علم تو |
بــاغ ارم چشـم دوختـه به حریمت |
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تــا کــه شود خاک شارع الارم تو |
تــا ابـدالدهر ای کــریمـۀ عتـــرت |
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کیست که محـروم باشد از کـرم تو |
بــه بـوَد از پـادشـاهـی دو جهانـم |
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همچــو گدایــان، گـدایـی درم تو |
دفتــر دل بــاز کـردهام به حضورت |
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تـا چـه کنـد بــاز اقتضـا قلـم تـو |
بحـر عطــا، بحــر جود، بحر کرامت |
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ای همه سیـراب معـرفت ز یـم تو |
رانـده بـه آوای قم، ز قم شد شیطان |
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تـا که شـود قـم، حـریم محترم تو |
مدح تو تنها نبـوده عادت میثم |
بوده از آغاز، ایـن عبادت میثـم |
بهار امامت 2 – غلامرضا سازگار